युवा शोध समवाय -5
विषय- 'लोकप्रिय का अनुकूलन और लोक का विस्थापन: आधुनिक हिन्दी रंगमंच के उदय के संदर्भ में'
प्रस्तोता - अमितेश कुमार
अध्यक्षता - महेश आनंद
परिचर्चा - त्रिपुरारी शर्मा
स्थान - कान्फ्रेंस सेंटर
दिनांक - 22 अगस्त 11 बजे
'लोकप्रिय का अनुकूलन और लोक का विस्थापन: आधुनिक हिन्दी रंगमंच के उदय के संदर्भ में'
भारत में आधुनिक रंगमंच का उदय औपनिवेशिक सरंक्षण में अंग्रेजों के आने के बाद होता है। अंग्रेज जब अपनी बस्तियां बसाते हैं तो रंगमंच को भी मनोरंजन के लिये अपने साथ ले आते हैं, धीरे धीरे यहीं पर रंगमंच विकसित होने लगता है. इस रंगमंच में भारतियों का प्रवेश वर्जित रहता है शुरूआत में, बाद में धीरे धीरे भारतियों को भी प्रवेश मिलता है। पहली बार ओथेलो के चरित्र में एक देशी अभिनेता को उतारा जाता है. इस रंगमंच की प्रेरणा से देशज भाषाओं का भी रंगमंच शूरु होता है। पारसी नाटक की पूरी परंपरा विकसित होती है। बंगाली , मराठी से होते हुए यह आधुनिक रंगमंच हिन्दी में भी शुरू होता है। भारतेन्दु हिन्दी में इसके उन्नयाक बनते हैं।
गौरतलब है कि भारत में संस्कृति रंगमंच की प्राचीन परंपरा है और उसके अवसान के बाद पारंपरिक रंगमंच की एक अखिल भारतीय परंपरा मिलती है। जिसमें बहुत कुछ संस्कृत रंगमंच के अवशेष विद्यमान है। लेकिन इन पारंपरिक रंगमंच से यह आधुनिक रंगमंच सायास दूरी बना कर विकसित होता है। भारतेन्दू ने इस रंगमंच को भ्रष्ट कहा है जिसमें कोई “नाटकत्व शेष नही था। लेकिन यह अवश्य था कि पारंपरिक रंगमंच की लोकप्रियता व्यापक थी।
भारतीय आधुनिक रंगमंच के उदय का जो समय है वहीं समय पुनर्जागरण, समाज सुधारों, अंग्रेजी शिकषा के आगमन, मध्यवर्ग के उभार, आधुनिकता के प्रसार, राष्ट्रीय भावना के उभार और शासन सुधारों को भी है। अंग्रेजी शिक्षा पाकर भारत में एक वर्ग विकसित होता है जो अंग्रेज शासक से जनता के लिये शासन सुधारों की मांग करता है साथ ही राष्ट्रीय भावना और समाज सुधार, आधुनिकता , शिक्षा इत्यादि को जनता तक ले जाता है। इस कार्य में लोकप्रिय माध्यमों का उपयोग किया जाता है क्योंकि अधिकांश जनता अशिक्षित है । रंगमंच इसका साधन बनता है। वह व्यपक पहूंच की अपनी क्षमता के चलते विचारों के प्रसार का साधन भी बनता है। नये समाज सुधारक और नवजागरण के नेता इस क्षमता का उपयोग करते हैं।
यह समय हिन्दी के निर्माण का है जब विभिन्न बोलियों को छोड़कर हिन्दी खड़ी बोली के तौर पर निर्मित हो रही है और और उर्दु से भी उसका संघर्ष चल रहा है जिसके राजनीतिक और सामाजिक अपने निहितार्थ है। एक ऐसी हिन्दी का निर्माण हो रहा है जो विभिन्न बोलियों के ऊपर अपनी जगह बना रही है। हिन्दी का आधुनिक रंगमंच इसी बनती हुई भाषा में विकसित होता है। हिन्दी नाटकों के इतिहास में भाषा के इस विकास को देखा जा सकता है।
भारतेदु के समय में नाटकों और रंगमंच का अभूतपूर्व विकास होता है। भारतेन्दु के नाटकों के शिल्प में ‘भ्रष्ट’ कहे जाने के बावजुद पारंपरिक रंगमंच का असर देखा जा सकता है लेकिन उसके बाद के रंगमंच में लोक रंगमंच विस्थापित हो जाता है साथ ही हिन्दी भी अलग रूप लेने लगती है और संस्कृत की तरफ़ उन्म्य्ख होती है.
इन सबके साथ ही पारंपरिक रंगमंच भी गतिशील है। भारतेंदु के भ्रष्ट कह दिये जाने के बाद उसकी तरफ़ कोई देखता नहीं है। साथ ही पारसी रंगमंच समायानुकूल बदलाव करके जनता तक व्यापक पहूंच बनाता है।
क्या कारण है कि भारतेंदु के समय में उभरे हिन्दी रंगमंच का आंदोलन आगे चलकर शिथिल पड़ जाता है? क्यों पारसी रंगमंच की पहूंच बढती जाती है लानत मलानत के बावजुद? क्या सचमुच पारंपरिक रंगमंच भ्रष्ट हो गये हैं और उनमें कोई आधुनिक और सामयिक अभिव्यक्ति उस दौर में नहीं हो रही? क्यों एक लोकप्रिय माध्यम को अनुकूलित करके उसमें से लोक को विस्थापित कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया की हिंदी रंगमंच के विकास में क्या कोई भूमिका है? इन सारे सवाकों को शोध पत्र के माध्यम से खोजने का प्रयास किया जायेगा साथ ही यह देखने का प्रयास किया जायेगा कि साहित्यिक रंगमंच जिन विषयों पर नाटक कर रह था और जिन मूल्यों को प्रोत्साहित कर रहा था लोकप्रिय रंगमंच उनको जगह दे रहा था कि नहीं? आखिर क्यों एक लोकप्रिय और जन माध्यम को आभिजात्य निर्मिति बना दिया गया जिससे उसका विकास रूक गया जो बहुत बाद में जाकर इप्टा के आ जाने से गतिशील हुआ. क्या हिंदी रंगमंच के वर्तमान के प्रश्न इस अतीत में छुपे हैं।
विषय- 'लोकप्रिय का अनुकूलन और लोक का विस्थापन: आधुनिक हिन्दी रंगमंच के उदय के संदर्भ में'
प्रस्तोता - अमितेश कुमार
अध्यक्षता - महेश आनंद
परिचर्चा - त्रिपुरारी शर्मा
स्थान - कान्फ्रेंस सेंटर
दिनांक - 22 अगस्त 11 बजे
'लोकप्रिय का अनुकूलन और लोक का विस्थापन: आधुनिक हिन्दी रंगमंच के उदय के संदर्भ में'
भारत में आधुनिक रंगमंच का उदय औपनिवेशिक सरंक्षण में अंग्रेजों के आने के बाद होता है। अंग्रेज जब अपनी बस्तियां बसाते हैं तो रंगमंच को भी मनोरंजन के लिये अपने साथ ले आते हैं, धीरे धीरे यहीं पर रंगमंच विकसित होने लगता है. इस रंगमंच में भारतियों का प्रवेश वर्जित रहता है शुरूआत में, बाद में धीरे धीरे भारतियों को भी प्रवेश मिलता है। पहली बार ओथेलो के चरित्र में एक देशी अभिनेता को उतारा जाता है. इस रंगमंच की प्रेरणा से देशज भाषाओं का भी रंगमंच शूरु होता है। पारसी नाटक की पूरी परंपरा विकसित होती है। बंगाली , मराठी से होते हुए यह आधुनिक रंगमंच हिन्दी में भी शुरू होता है। भारतेन्दु हिन्दी में इसके उन्नयाक बनते हैं।
गौरतलब है कि भारत में संस्कृति रंगमंच की प्राचीन परंपरा है और उसके अवसान के बाद पारंपरिक रंगमंच की एक अखिल भारतीय परंपरा मिलती है। जिसमें बहुत कुछ संस्कृत रंगमंच के अवशेष विद्यमान है। लेकिन इन पारंपरिक रंगमंच से यह आधुनिक रंगमंच सायास दूरी बना कर विकसित होता है। भारतेन्दू ने इस रंगमंच को भ्रष्ट कहा है जिसमें कोई “नाटकत्व शेष नही था। लेकिन यह अवश्य था कि पारंपरिक रंगमंच की लोकप्रियता व्यापक थी।
भारतीय आधुनिक रंगमंच के उदय का जो समय है वहीं समय पुनर्जागरण, समाज सुधारों, अंग्रेजी शिकषा के आगमन, मध्यवर्ग के उभार, आधुनिकता के प्रसार, राष्ट्रीय भावना के उभार और शासन सुधारों को भी है। अंग्रेजी शिक्षा पाकर भारत में एक वर्ग विकसित होता है जो अंग्रेज शासक से जनता के लिये शासन सुधारों की मांग करता है साथ ही राष्ट्रीय भावना और समाज सुधार, आधुनिकता , शिक्षा इत्यादि को जनता तक ले जाता है। इस कार्य में लोकप्रिय माध्यमों का उपयोग किया जाता है क्योंकि अधिकांश जनता अशिक्षित है । रंगमंच इसका साधन बनता है। वह व्यपक पहूंच की अपनी क्षमता के चलते विचारों के प्रसार का साधन भी बनता है। नये समाज सुधारक और नवजागरण के नेता इस क्षमता का उपयोग करते हैं।
यह समय हिन्दी के निर्माण का है जब विभिन्न बोलियों को छोड़कर हिन्दी खड़ी बोली के तौर पर निर्मित हो रही है और और उर्दु से भी उसका संघर्ष चल रहा है जिसके राजनीतिक और सामाजिक अपने निहितार्थ है। एक ऐसी हिन्दी का निर्माण हो रहा है जो विभिन्न बोलियों के ऊपर अपनी जगह बना रही है। हिन्दी का आधुनिक रंगमंच इसी बनती हुई भाषा में विकसित होता है। हिन्दी नाटकों के इतिहास में भाषा के इस विकास को देखा जा सकता है।
भारतेदु के समय में नाटकों और रंगमंच का अभूतपूर्व विकास होता है। भारतेन्दु के नाटकों के शिल्प में ‘भ्रष्ट’ कहे जाने के बावजुद पारंपरिक रंगमंच का असर देखा जा सकता है लेकिन उसके बाद के रंगमंच में लोक रंगमंच विस्थापित हो जाता है साथ ही हिन्दी भी अलग रूप लेने लगती है और संस्कृत की तरफ़ उन्म्य्ख होती है.
इन सबके साथ ही पारंपरिक रंगमंच भी गतिशील है। भारतेंदु के भ्रष्ट कह दिये जाने के बाद उसकी तरफ़ कोई देखता नहीं है। साथ ही पारसी रंगमंच समायानुकूल बदलाव करके जनता तक व्यापक पहूंच बनाता है।
क्या कारण है कि भारतेंदु के समय में उभरे हिन्दी रंगमंच का आंदोलन आगे चलकर शिथिल पड़ जाता है? क्यों पारसी रंगमंच की पहूंच बढती जाती है लानत मलानत के बावजुद? क्या सचमुच पारंपरिक रंगमंच भ्रष्ट हो गये हैं और उनमें कोई आधुनिक और सामयिक अभिव्यक्ति उस दौर में नहीं हो रही? क्यों एक लोकप्रिय माध्यम को अनुकूलित करके उसमें से लोक को विस्थापित कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया की हिंदी रंगमंच के विकास में क्या कोई भूमिका है? इन सारे सवाकों को शोध पत्र के माध्यम से खोजने का प्रयास किया जायेगा साथ ही यह देखने का प्रयास किया जायेगा कि साहित्यिक रंगमंच जिन विषयों पर नाटक कर रह था और जिन मूल्यों को प्रोत्साहित कर रहा था लोकप्रिय रंगमंच उनको जगह दे रहा था कि नहीं? आखिर क्यों एक लोकप्रिय और जन माध्यम को आभिजात्य निर्मिति बना दिया गया जिससे उसका विकास रूक गया जो बहुत बाद में जाकर इप्टा के आ जाने से गतिशील हुआ. क्या हिंदी रंगमंच के वर्तमान के प्रश्न इस अतीत में छुपे हैं।