Friday, 17 August 2012

ABSTRACT - 5

युवा शोध समवाय -5

विषय- 'लोकप्रिय का अनुकूलन और लोक का विस्थापन: आधुनिक हिन्दी रंगमंच के उदय के संदर्भ में' 

प्रस्तोता - अमितेश कुमार 
अध्यक्षता - महेश आनंद

परिचर्चा - त्रिपुरारी शर्मा 
स्थान - कान्फ्रेंस सेंटर 
दिनांक - 22 अगस्त 11 बजे 


'लोकप्रिय का अनुकूलन और लोक का विस्थापन: आधुनिक हिन्दी रंगमंच के उदय के संदर्भ में' 

भारत में आधुनिक रंगमंच का उदय औपनिवेशिक सरंक्षण में अंग्रेजों के आने के बाद होता है। अंग्रेज जब अपनी बस्तियां बसाते हैं तो रंगमंच को भी मनोरंजन के लिये अपने साथ ले आते हैं, धीरे धीरे यहीं पर रंगमंच विकसित होने लगता है. इस रंगमंच में भारतियों का प्रवेश वर्जित रहता है शुरूआत में, बाद में धीरे धीरे भारतियों को भी प्रवेश मिलता है। पहली बार ओथेलो के चरित्र में एक देशी अभिनेता को उतारा जाता है. इस रंगमंच की प्रेरणा से देशज भाषाओं का भी रंगमंच शूरु होता है। पारसी नाटक की पूरी परंपरा विकसित होती है। बंगाली , मराठी से होते हुए यह आधुनिक रंगमंच हिन्दी में भी शुरू होता है। भारतेन्दु हिन्दी में इसके उन्नयाक बनते हैं।
गौरतलब है कि भारत में संस्कृति रंगमंच की प्राचीन परंपरा है और उसके अवसान के बाद पारंपरिक रंगमंच की एक अखिल भारतीय परंपरा मिलती है। जिसमें बहुत कुछ संस्कृत रंगमंच के अवशेष विद्यमान है। लेकिन इन पारंपरिक रंगमंच से यह आधुनिक रंगमंच सायास दूरी बना कर विकसित होता है। भारतेन्दू ने इस रंगमंच को भ्रष्ट कहा है जिसमें कोई “नाटकत्व शेष नही था। लेकिन यह अवश्य था कि पारंपरिक रंगमंच की लोकप्रियता व्यापक थी।
भारतीय आधुनिक रंगमंच के उदय का जो समय है वहीं समय पुनर्जागरण, समाज सुधारों, अंग्रेजी शिकषा के आगमन, मध्यवर्ग के उभार, आधुनिकता के प्रसार, राष्ट्रीय भावना के उभार और शासन सुधारों को भी है। अंग्रेजी शिक्षा पाकर भारत में एक वर्ग विकसित होता है जो अंग्रेज शासक से जनता के लिये शासन सुधारों की मांग करता है साथ ही राष्ट्रीय भावना और समाज सुधार, आधुनिकता , शिक्षा इत्यादि को जनता तक ले जाता है। इस कार्य में लोकप्रिय माध्यमों का उपयोग किया जाता है क्योंकि अधिकांश जनता अशिक्षित है । रंगमंच इसका साधन बनता है। वह व्यपक पहूंच की अपनी क्षमता के चलते विचारों के प्रसार का साधन भी बनता है। नये समाज सुधारक और नवजागरण के नेता इस क्षमता का उपयोग करते हैं। 
यह समय हिन्दी के निर्माण का है जब विभिन्न बोलियों को छोड़कर हिन्दी खड़ी बोली के तौर पर निर्मित हो रही है और और उर्दु से भी उसका संघर्ष चल रहा है जिसके राजनीतिक और सामाजिक अपने निहितार्थ है। एक ऐसी हिन्दी का निर्माण हो रहा है जो विभिन्न बोलियों के ऊपर अपनी जगह बना रही है। हिन्दी का आधुनिक रंगमंच इसी बनती हुई भाषा में विकसित होता है। हिन्दी नाटकों के इतिहास में भाषा के इस विकास को देखा जा सकता है। 
भारतेदु के समय में नाटकों और रंगमंच का अभूतपूर्व विकास होता है। भारतेन्दु के नाटकों के शिल्प में ‘भ्रष्ट’ कहे जाने के बावजुद पारंपरिक रंगमंच का असर देखा जा सकता है लेकिन उसके बाद के रंगमंच में लोक रंगमंच विस्थापित हो जाता है साथ ही हिन्दी भी अलग रूप लेने लगती है और संस्कृत की तरफ़ उन्म्य्ख होती है.
इन सबके साथ ही पारंपरिक रंगमंच भी गतिशील है। भारतेंदु के भ्रष्ट कह दिये जाने के बाद उसकी तरफ़ कोई देखता नहीं है। साथ ही पारसी रंगमंच समायानुकूल बदलाव करके जनता तक व्यापक पहूंच बनाता है।
क्या कारण है कि भारतेंदु के समय में उभरे हिन्दी रंगमंच का आंदोलन आगे चलकर शिथिल पड़ जाता है? क्यों पारसी रंगमंच की पहूंच बढती जाती है लानत मलानत के बावजुद? क्या सचमुच पारंपरिक रंगमंच भ्रष्ट हो गये हैं और उनमें कोई आधुनिक और सामयिक अभिव्यक्ति उस दौर में नहीं हो रही? क्यों एक लोकप्रिय माध्यम को अनुकूलित करके उसमें से लोक को विस्थापित कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया की हिंदी रंगमंच के विकास में क्या कोई भूमिका है? इन सारे सवाकों को शोध पत्र के माध्यम से खोजने का प्रयास किया जायेगा साथ ही यह देखने का प्रयास किया जायेगा कि साहित्यिक रंगमंच जिन विषयों पर नाटक कर रह था और जिन मूल्यों को प्रोत्साहित कर रहा था लोकप्रिय रंगमंच उनको जगह दे रहा था कि नहीं? आखिर क्यों एक लोकप्रिय और जन माध्यम को आभिजात्य निर्मिति बना दिया गया जिससे उसका विकास रूक गया जो बहुत बाद में जाकर इप्टा के आ जाने से गतिशील हुआ. क्या हिंदी रंगमंच के वर्तमान के प्रश्न इस अतीत में छुपे हैं।

Wednesday, 8 August 2012

जुलाई महिने के अंत तक आर्थिक ब्यौरा:


पिछली बचत : 2959/-

जुलाई में संग्रहित : 200/-

जुलाई का व्यय:-
पोस्टर/ जेरोक्स : 50/-
स्नैक्स : 700/-
पानी : 60/-
कुल : 810/-

शेष राशि
:- 2959+200-810= 2349/-

Sunday, 15 July 2012

जून महिने के अंत तक आर्थिक ब्यौरा



पिछली बचत - 3149/-
जून में संग्रहित - 600/-

जून का व्यय-
पोस्टर/ जेरोक्स - 70/-
स्नैक्स- 660/-
पानी- 60/-
कुल - 790/-

शेष राशि- 3149+600-790= 2959/-

Tuesday, 3 July 2012

(Abstract) शोध पत्र पाठ - 4

“जनक्षेत्र (पब्लिक स्फियर) का अस्तित्व व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व, समाज के प्रति नागरिकता बोध, लोकविषयों पर संवादधर्मिता तथा ज्ञान-प्रणालियों के वैविध्यीकरण पर निर्भर है।” 
-युरगेन हैबरमास

हैबरमास ने अपनी पुस्तक ‘द स्ट्रक्चरल ट्रांसफार्मेशन ऑफ द पब्लिक स्फियर’ में जनक्षेत्र की अवधारणा की व्यापक चर्चा की है। जनक्षेत्र वह सामाजिक जीवनवृत्त या अवस्थिति है जिसके निर्धारण में सामाजिक सम्प्रेषण की अनिवार्यता, जन विमर्श की प्रकृति तथा नागरिक सहभागिता की संख्या महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह मनुष्य के आंतरिक जीवन (प्राइवेट) और बाहरी तंत्र (पब्लिक) के बीच फैला एक मध्यस्थ क्षेत्र है. हैबरमास ने अपने अध्ययन में सामुदायिकता तथा जनक्षेत्र को दो संदर्भों में समझने की कोशिश की है। इसका एक आयाम अपेक्षाकृत अधिक संचरणशील और विसरणमूलक है इसके अंतर्गत संप्रेषणीयता, सामाजिक अंतःक्रिया, लोक विमर्श व समन्वित क्रिया-कलाप शामिल किए जाते हैं जो वस्तुतः सामाजिक एकता तथा संवाद प्रणाली को जन्म देते हैं। दूसरी ओर स्थैतिक व्यवस्थामूलक आयाम है जो पूरी नौकरशाही व्यवस्था, भौतिक उत्पादन प्रणाली, सरकारी तंत्र को जन्म देता है। हैबरमास ने इस पुस्तक में एक विशिष्ट सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों तथा पूर्व निर्धारित मान्यताओं के आधार पर जनक्षेत्र की अवधारणा के उदय, विकास क्रम और अंतर्विरोधों को प्रदर्शित किया है। हैबरमास अठ्ठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में बुर्जुआ के अभ्युदय को लोकतंत्र के जन्म व विकास के लिए उत्तरदायी मानते हैं। हैबरमास ने 18वीं सदी के इंग्लैंड, फ्रांस एवम् जर्मनी के राजनीतिक जीवन के आधार पर नागरिक समाज एवम लोकक्षेत्र के संबंध में अपनी प्रारंभिक अवधारणा तैयार की है। वे कॉफ़ी हाउस, साहित्यिक एवम् सांस्कृतिक समूहों, राजनीतिक क्लब तथा साहित्यिक पत्रिकाओं को लोकक्षेत्र का उदाहरण मानते है। वस्तुतः ये वह साधन तथा स्थान थे जहाँ सम्प्रेषण और तर्क की व्यवस्थाएं विवेकपूर्ण एवम् निष्पक्ष व्यवहार द्वारा लोकविमर्श को गतिशील करती थीं। विशेषाधिकार और वंशानुगत पहचान की उपेक्षा इसकी प्रमुख विशेषता थी। यह समय लोक-विमर्श, राजनीतिक रूप से सक्रिय व सहभागी बुर्जुआ और उदारवादी लोकतंत्र का काल था। इस काल में लोकतांत्रिक मूल्यों, प्रक्रियाओं, नीतियों और अपेक्षाओं के सन्दर्भ में जनता में खूब चर्चाएं व वाद-विवाद हुए जो आगे औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया, संस्कृति उद्योग और आधुनिक जटिल राज्य के अभ्युदय के परवर्ती युग में नहीं दिखाई देते। इस संदर्भ में थियोडोर एडार्नो और फ्रेंकफर्ट स्कूल के विचारकों के संस्कृति उद्योग संबंधी अध्ययन को देखना भी रोचक होगा. इस पूरी प्रक्रिया में ज्ञान प्रणालियों की एक सक्रिय भूमिका रही। वास्तव में जनक्षेत्र की अवधारणा का यूरोपीय सन्दर्भ हो या भारतीय सन्दर्भ इसके पीछे एक स्पष्ट विचारधारा कार्यरत है। यह विचारधारा अपनी परिधि में राजनीति शक्ति विमर्श तथा ज्ञान विमर्श को समेटे हुए है। ज्ञान और शक्ति के विमर्श से जनक्षेत्र की अवधारणा का सीधा संबंध है। यूरोपीय सन्दर्भ में बुर्जुआ वर्ग की ज्ञान आधारित संरचनाओं ने जनक्षेत्र की अवधारणा को गतिशीलता प्रदान की। जैसे-जैसे बुर्जुआ वर्ग का शक्ति तंत्र विकसित होता गया वैसे-वैसे जनक्षेत्र के लोकतांत्रिक स्वरूप का विघटन होता गया और अंत में ज्ञान और शक्ति के आपसी सहमतिपरक समीकरण ने जनक्षेत्र की अवधारणा को सीमित तथा नियंत्रित कर दिया। फूको के अनुसार ज्ञान एक विशेष तरह की शक्ति संरचना है और शक्ति संरचना एक विशेष तरह का ज्ञान है। ज्ञान और शक्ति दोनों मिलकर अपने समय की एकीकृत संरचना को रचते हैं। वास्तव में एक निश्चित समय में शक्ति तंत्र एक विशेष प्रकार की ज्ञान व्यवस्था को रचता है समाज के विभिन्न लोक विमर्श इसी ज्ञान व्यवस्था पर आधारित होते हैं। शक्तितन्त्र इस ज्ञान व्यवस्था को सार्वभौमिक तथा शाश्वत बनाकर प्रस्तुत करता है जबकि सार्वभौमिक और शाश्वत जैसा वास्तव में कुछ नहीं होता। ज्ञान की कोई निरपेक्ष सत्ता नहीं होती वह हमेशा शक्तितंत्र से जुड़ा रहता है और शक्तितन्त्र उसे विशेष प्रकार से अपने पक्ष में उपयोग करता है और उसे वैधता प्रदान करता है। भारतीय सन्दर्भ में यदि देखें तो विशेषकर उन्नीसवीं शताब्दी के नवजागरणकाल में हिन्दू और मुस्लिम अस्मिता के बीच संघर्ष की प्रक्रिया शक्तितन्त्र और ज्ञान व्यवस्था से प्रभावित थी। हिन्दू और मुस्लिम अस्मिता के सन्दर्भ में वर्चस्व और प्रतिरोध की प्रक्रिया उनके द्वारा निर्धारित समुदाय के शक्तितन्त्र पर आधारित थी जिसका नेतृत्व क्रमशः हिन्दू और मुस्लिम अभिजात वर्ग कर रहा था। दोनों ही वर्गों के मूल कर्ताओं ने अपने-अपने हितों को ज्ञान व्यवस्था के प्रतिमानों का प्रयोग कर सार्वभौमीकृत किया और उसे एक वैधता प्रदान की। वैधता प्रदान करने की प्रक्रिया में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथकीय आख्यानों, इतिहास की एक विशेषीकृत व्याख्या का प्रयोग किया गया और इस प्रकार वह प्रक्रिया शुरू हुई जिसमें जनक्षेत्र के मूलतत्व संवाद के स्थान पर अपने-अपने पक्ष में एकलाप की प्रक्रिया केन्द्र में आ गई। 
इस संगोष्ठी पत्र में जनक्षेत्र तथा उससे सम्बंधित विविध आयामों की सिद्धांतगत समझ और उसके व्यवहारिक पहलुओं की एक रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. इस क्रम में हेबरमास, जावीद आलम, नांसी फ्रेजर, अमर्त्य सेन और एडार्नो के विचारों से भी एक जिरह करने की कोशिश की गयी है. जनक्षेत्र के यूरोपीय और भारतीय प्रतिमानों की संदर्भगत भिन्नता और समरूपता पर भी विश्लेषण किया गया है और अंत में हिन्दी जनक्षेत्र पर भी सीमित चर्चा की गयी है जिसका समयकाल उन्नीसवी सदी का उत्तरार्ध है.

Tuesday, 12 June 2012

ABSTRACT - शोध पत्र पाठ 3

किंवदन्तियों के अविश्वसनीय वर्णनों को लक्षित कर उनका सिरे से नकार अध्ययन की कई संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगा देता है, क्योंकि किंवदन्तीगत कथ्यों के उदय और विकास की भी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है जिसका सम्बन्ध युग विशेष की समुदायगत एवं समुदाय विशेष की कालगत आवश्यकताओं से होता है। ऐतिहासिक जरूरतों के दबाव में अतीत का प्रत्येक वर्तमान इन कथ्यों पर एक नई परत चढ़ा जाता है जिसके साक्ष्य हमारे समक्ष किंवदन्तियों में संस्तर-बहुलता के रूप में बचे रह जाते हैं। वर्तमान इतिहास-लेखन हर संभव तरीकों से किंवदन्तीगत वर्णनों में से ऐतिहासिक तथ्यों को निचोड़ लेने तक सीमित रहता है, किन्तु इस प्रकार के एककालिक अध्ययन से उनके वास्तविक अभिप्राय बहुलांशतः ओझल बने रहते हैं क्योंकि इसमें उनके कथ्यों के क्रम-विकास की कहानी अछूती रह जाती है। अतः अध्ययन का केन्द्र यदि किंवदन्तियों में कथ्यों के क्रम-विकास को बनाया जाये तो बहुत संभव है कि उनसे सम्बद्ध समुदायों की ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया के अब तक अनावृत रहे कुछ पहलू प्रकाशित हो उठें और ऐसा भक्ति-आन्दोलन के ऐतिहासिक विकास के संदर्भ में भी संभव है। इस प्रकार मेरी दृष्टि में किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना विशेष से सम्बन्धित किंवदन्तियों का महत्व जितना उनकी ऐतिहासिकता के संदर्भ में है उससे कहीं ज्यादा बाद के समय में उनसे सम्बद्ध समुदायों के ऐतिहासिक विकास के संदर्भ में है। कबीर के विशेष संदर्भ में कहें तो सम्बद्ध किंवदन्तियों में स्वयं कबीर के विषय में जितनी ऐतिहासिकता की संभावना है उससे कहीं अधिक उनसे किसी भी रूप में सरोकार रखने वाले विभिन्न समुदायों की ऐतिहासिक विकास-कथा के वहन की संभावना है। निश्चय ही इस विकास-कथा को समझने का मार्ग किंवदन्तियों में कथ्यों के क्रम-विकास के अध्ययन से होकर गुजरता है जो उनके एककालिक अध्ययन से संभव नहीं है। अर्थात् किंवदन्तियों का अध्ययन एक भिन्न पद्धति की माँग करता है, जिसके अन्तर्गत उन्हें वर्तमान के सापेक्ष ‘तैयार माल’ (finished product) के रूप में देखने के बजाय उनकी निर्मिति-संरचना को लक्षित करने की जरूरत है।
किंवदन्तियों की निर्मिति की संश्लिष्ट संरचना को सुलझाते हुए उनके कथ्यों के क्रम-विकास को ठीक-ठीक रेखांकित करने का यह कार्य सरल नहीं है और ऐसा कबीरदास के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के संदर्भ में भी सत्य है। पहली कठिनाई स्रोतों के संकलन एवं रचना-काल निर्धारण की है जिसके आधार पर अनुमान किया जा सके कि कथ्य विशेष का विकास किस काल-स्तर पर हुआ? इसके अतिरिक्त किंवदन्तियों के ‘क्रिप्टिक और कम्प्रेस्ड लैंग्वेज’ में स्मृति-संचयन की सामुदायिक प्रणाली की गिरहों को खोलना भी आसान नहीं है। दूसरी ओर काल के विभिन्न स्तरों पर सम्बद्ध समुदायों के हित, उनकी आवश्यकताएँ सीधी और सपाट नहीं, बल्कि संश्लिष्ट रही हैं और इसी कारण किंवदन्ती विशेष की निर्मिति-संरचना के भीतर अभिप्रेरणाओं का जटिल पुंज कार्यरत दिखाई पड़ता है। कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में कहा जा सकता है कि आस्था की परम्परा के भीतर परवर्ती काल में कबीर में अलौकिक एवं पंथ-संस्थापक व्यक्तित्व के प्रक्षेप की अभिप्रेरणाएँ क्रियाशील थीं तो दूसरी ओर ऐतिहासिक विकास के दौरान विभिन्न ‘भौतिक सम्बन्धों’ (material relations) के बीच द्वन्द्व भी कथ्यों के उदय और विकास प्रक्रिया में निर्धारक अवयव रहा है।
कबीरदास के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के क्रम-विकास की पड़ताल करते हुए सहज ही दिखाई पड़ता है कि कथ्यों में पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन कबीर-पंथ की स्थापना और उसके आरम्भिक विकास के दौर में उपस्थित होता है और कबीर का जुलाहा जाति से विलगाव प्रतिपादित होता है। फिर आगे संभवतया ‘गलता सम्मेलन’ जैसी परम्पराओं के प्रभाव में वे रामानन्द के आशीर्वाद से ‘बाल-विधवा’ या ‘विधवा-ब्राह्मणी’ की कानीन सन्तान बताये जाने लगते हैं। 1713 ई॰ के गलता सम्मेलन और उसके निर्णयों में भौतिक सम्बन्धों के द्वन्द्व और आस्थापरक अभिप्रायों की संश्लिष्ट भूमिका रही थी। इसके अतिरिक्त कबीर को आस्था का विषय बना चुकी चेतना के लिए उनके अलौकिक स्मरण हेतु अनिवार्य था पौराणिकता का आश्रय ग्रहण करना और प्रतिफल के रूप में वे ‘पुष्कर-पर्ण’ पर अवतरित होते दिखाई देने लगते हैं। इस तरह हम अनुमान कर सकते हैं कि कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों का क्रम-विकास काल के विभिन्न स्तरों पर संश्लिष्ट अभिप्रायों-अभिप्रेणाओं के दबाव में होता होता है। बहरहाल सभी कठिनाइयों से दो-चार होते हुए प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य है उन ऐतिहासिक प्रश्नों की यथासंभव पड़ताल करना जिनके उत्तरस्वरूप विशेषकर कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियाँ अपनी संस्तर-बहुलता प्राप्त करती विकसित होती रही हैं।

मई महिने के अंत तक आर्थिक ब्यौरा



पिछला शेष = 1579/- 
मई में संग्रहित = 2400/-
कुल जमा = 3979/-

मई का व्यय-

फ़ोन = 50/-
पोस्टर = 50/-
टेप = 10/-
स्नैक्स = 660/-
पानी = 60/-
कुल खर्च = 830/-

शेष राशि 3979 - 830 = 3149/-

Friday, 18 May 2012

युवा शोध समवाय, शोध पत्र पाठ- 2 (Abstract)


“ टेलीविजन का कारोबार”
मुनाफ़ा और भाषाई उपद्रव के बीच सरोकार का मिथक


टेलीविजन शुरु से आखिर तक उद्योग है. यह अलग बात है कि इसे व्यवस्थित उद्योग की शक्ल दिए जाने की कोशिशों के बावजूद अभी भी इसे सामाजिक सरोकार का माध्यम के रुप में देखने-समझने और विश्लेषित करने की परंपरा बरकरार है. इतना ही नहीं समाचार चैनलों के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ के दावे के बीच अब तो मनोरंजन चैनल तक भी अपने को इसी रुप में प्रस्तावित करने में जुटे हैं. यह टेलीविजन को पूंजीवादी माध्यम की अवधारणा और सांस्कृतिक अध्ययन पद्धतियों के तहत विश्लेषित करने से अलग की स्थिति है.
साल 2000 में फिक्की फ्रेम्स की जो नींव पड़ी और उसके बाद सिनेमा के साथ-साथ टेलीविजन को भी एक व्यवस्थित उद्योग का दर्जा दिए जाने की जो कोशिशें हुई, उसके पीछे जो निवेश हुए,अगर उसके पीछे के तर्कों पर गौर करें तो हमारे लिए यह समझना कहीं ज्यादा आसान है कि टेलीविजन टायर,ट्यूब,सीमेंट,रीयल इस्टेट जैसे किसी दूसरे उद्योग की तरह ही एक उद्योग है जिसका संबंध सामाजिक सरोकार के सवाल को पण्य वस्तु/उत्पाद में तब्दील करना है.[1] यह उत्पाद या तो समाचार की शक्ल में या फिर मनोरंजन की शक्ल में हमारे सामने आते हैं. शायद यही कारण है कि साल 2001 में फिक्की-फ्रेम्स ने मीडिया शोध पर एक सत्र रखा, उसमें टीवी दर्शक को टीवी उपभोक्ता के तरीके से देखने और उसी आधार पर रणनीति बनाने की बात की.[2] मसलन दूरदर्शन के संदर्भ में कागजी तौर पर ही सही दर्शकों को बतौर नागरिक देखने और उनकी जरुरतों के आधार पर कार्यक्रम प्रसारित करने की जो बात की जाती रही, इस मंच के जरिए उसे सीधे-सीधे उपभोक्ता कहा जाने लगा. टीवी के साथ दर्शक के इस नए संबंध के साथ जो स्पष्टता बरती गई, उसमें कोई शक नहीं कि टीवी के बाजार की नब्ज को समझने और उस आधार पर अपना प्रसार करने में भरपूर मदद मिली. लेकिन टेलीविजन सामाजिक सरोकार के घोषित एजेंडे से निकलकर दूसरी चिंता में सक्रिय हो गया. मसलन इसी सत्र में इस बात पर चर्चा की गई कि आज से दो साल पहले जिस टीवी पर 20 मिलियन सेकण्ड विज्ञापन आते थे, अब उस पर 50 मिलियन सेकण्ड विज्ञापन आने लगे हैं. ऐसे में मीडिया बायर्स ( मीडिया स्पेस की खरीद-बिक्री करनेवाले लोग) की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. लेकिन ऐसे में इस रणनीति के साथ काम करनेवाले टेलीविजन को जिसमें कि मनोरंजन चैनल से लेकर समाचार चैनल तक बराबर के हिस्सेदार हैं, ठीक उसी तरह विश्लेषित करने की पद्धति का विकास होता जिस संरचना और ढांचे के तहत ये काम करते हैं. मेरी अपनी समझ है कि यह काम या तो हमसे छूट गया या फिर पूंजीवादी माध्यम का लेबल चस्पा कर देने के बाद इसके भीतर सामाजिकता के दावे और मुनाफे की पेचीदगियों को समझने की जरुरतें महसूस नहीं की गई. यह एक तरह से विश्लेषण का उदासीन क्षेत्र बनकर रह गया. पूंजीवादी माध्यम मानने के बावजूद अगर इसके काम करने के तरीके पर बात हो पाती( हिन्दी क्षेत्र में) तो शायद सामाजिकता के दावे और खोखलेपन को हम बेहतर ढंग से समझ रहे होते. खैर, हुआ यह है कि हमारी इसी चूक के बीच टेलीविजन ने मुनाफे और सरोकार के बीच एक ऐसी प्रविधि का विकास किया है जिसमें दोनों काम साथ-साथ चलते हैं. मुनाफे का काम तो चलता ही है, सरोकार का काम होता दिखाई देता है. ऐसा या तो झटके में पूंजीवादी माध्यम करार देकर चलता कर देने की वजह से हुआ है या फिर अभी भी सामाजिक सरोकार की उम्मीद और उसी के तहत विश्लेषित करने की आदत के कारण जिसे कि जेम्स कर्रन और जीन सीटन ने ब्रिटेन के संदर्भ में मीडिया और टेलीविजन की आवारागर्दी के रुप में रेखांकित किया है.[3]
टेलीविजन की इस आवारागर्दी के बीच सामाजिकता कहां और कितना पीछे रह गया, इस पर बहस करना फिर उस उम्मीद की तरफ लौटना है. लेकिन समय-समय पर इस टेलीविजन पर दुरुस्त होने को लेकर जो दबाव बनाए गए, उसका नतीजा यह हुआ कि सामाजिक जटिलताओं से अपने को काटते हुए भी टेलीविजन सरोकार के दावे जोर-शोर से करने लग गया. समाचार चैनलों ने तो यह दावा शुरु से ही किया और यहां तक कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग को सरकारी भोंपू और जनविरोधी तक बताया लेकिन करीब बारह साल बाद मनोरंजन चैनल तक ऐसे दावे करने में पीछे नहीं हैं. यह टेलीविजन के भीतर और उसके प्रभाव से पैदा होनेवाली सामाजिकता के बजाय उस दबाव और जरुरत को खारिज करने की रणनीति भर है जो बहुत ही चमकीले ढंग से हमारे सामने है. यह हमें सीरियलों,रियलिटी शो और यहां तक कि गेम शो में समान रुप से दिखाई देता है. टेलीविजन की नए किस्म की सामाजिकता पर बात करना जरुरी है.
दूसरी तरफ सामाजिकता के इस नए संस्करण में भाषाई मिजाज न सिर्फ बदला है बल्कि यह सवाल गंभीरता से उठने लगा है कि क्या वाकई टेलीविजन को भाषा की जरुरत है. वह भाषा जिसके जरिए हम अर्थ का संप्रेषण भर नहीं कर रहे होते हैं बल्कि यथार्थ को रेखांकित भी कर रहे होते हैं. आप इसे लिखित या मौखिक भाषा के संदर्भ में देख सकते हैं. मेरी अपनी समझ है कि टेलीविजन को भाषा के जरिए अगर यह काम करना होता तो उसकी भाषा दूसरे माध्यमों से कहीं ज्यादा संवेदनशील होती लेकिन प्रयोग में इस भाषा को या तो दरकिनार कर दिया गया है और उसकी जगह कई दूसरे किस्म की भाषा ( जिसकी चर्चा हम ग्राफिक्स और विजुअल्स के जरिए करेंगे) ईजाद कर ली गई है, जिसने अपने तर्क विकसित किए हैं या फिर भाषा का यह रूप विज्ञापन के आसपास बैठता है. अकादमिक,व्याकरणिक और यहां तक कि स्वयं टेलीविजन की भाषा शर्तों के लिहाज से भाषा का यह संयोजन अराजक और उपद्रवी है लेकिन मुनाफे की दुनिया की असली भाषा यही है..टेलीविजन की सामाजिकता इसके बीच से होकर गुजरती है..


संदर्भः मंडी में मीडिया, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक

बीज शब्द- कार्पोरेट मीडिया, टेलीविजन, भाषाई प्रयोग, टेलीविजन सामग्री, मीडिया उद्योग के तर्क, सामाजिकता की शक्ल, मुनाफा बनाम सरोकार, सहज संप्रेषण, स्क्रीन भाषा, मार्केटिंग स्ट्रैटजी, फिक्की-केपीएमज रिपोर्ट, मीडिया की आचार संहिता, सेल्फ रेगुलेशन..


(विनीत कुमार द्वारा लिखी किताब 'मंडी में मीडिया' हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.)



[1] Daya kishan thussu( 2007), news as entertainment, the rise of global infotainment, sage publication.
[2] Entertainment and media research: viewing the viewer as consumer, फिक्की-फ्रेम्स 2001
[3] James curran and jean seaton( 2003), Power without Responsibility. Routledge, London.

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