“
टेलीविजन का कारोबार”
मुनाफ़ा और भाषाई उपद्रव के बीच सरोकार का मिथक

साल 2000
में फिक्की फ्रेम्स की जो नींव पड़ी और उसके बाद सिनेमा के साथ-साथ टेलीविजन को भी
एक व्यवस्थित उद्योग का दर्जा दिए जाने की जो कोशिशें हुई, उसके पीछे जो निवेश
हुए,अगर उसके पीछे के तर्कों पर गौर करें तो हमारे लिए यह समझना कहीं ज्यादा आसान
है कि टेलीविजन टायर,ट्यूब,सीमेंट,रीयल इस्टेट जैसे किसी दूसरे उद्योग की तरह ही
एक उद्योग है जिसका संबंध सामाजिक सरोकार के सवाल को पण्य वस्तु/उत्पाद
में तब्दील करना है.[1]
यह उत्पाद या तो समाचार की शक्ल में या फिर मनोरंजन की शक्ल में हमारे सामने आते
हैं. शायद यही कारण है कि साल 2001 में फिक्की-फ्रेम्स ने मीडिया शोध पर एक सत्र
रखा, उसमें टीवी दर्शक को टीवी उपभोक्ता के तरीके से देखने और उसी आधार पर रणनीति
बनाने की बात की.[2]
मसलन दूरदर्शन के संदर्भ में कागजी तौर पर ही सही दर्शकों को बतौर नागरिक देखने और
उनकी जरुरतों के आधार पर कार्यक्रम प्रसारित करने की जो बात की जाती रही, इस मंच
के जरिए उसे सीधे-सीधे उपभोक्ता कहा जाने लगा. टीवी के साथ दर्शक के इस नए संबंध
के साथ जो स्पष्टता बरती गई, उसमें कोई शक नहीं कि टीवी के बाजार की नब्ज को समझने
और उस आधार पर अपना प्रसार करने में भरपूर मदद मिली. लेकिन टेलीविजन सामाजिक
सरोकार के घोषित एजेंडे से निकलकर दूसरी चिंता में सक्रिय हो गया. मसलन इसी सत्र
में इस बात पर चर्चा की गई कि “आज
से दो साल पहले जिस टीवी पर 20 मिलियन सेकण्ड विज्ञापन आते थे, अब उस पर 50 मिलियन
सेकण्ड विज्ञापन आने लगे हैं. ऐसे में मीडिया बायर्स ( मीडिया स्पेस की
खरीद-बिक्री करनेवाले लोग) की जिम्मेदारी बढ़ जाती है.”
लेकिन ऐसे में इस रणनीति के साथ काम करनेवाले टेलीविजन को जिसमें कि मनोरंजन चैनल
से लेकर समाचार चैनल तक बराबर के हिस्सेदार हैं, ठीक उसी तरह विश्लेषित करने की
पद्धति का विकास होता जिस संरचना और ढांचे के तहत ये काम करते हैं. मेरी अपनी समझ
है कि यह काम या तो हमसे छूट गया या फिर पूंजीवादी माध्यम का लेबल चस्पा कर देने
के बाद इसके भीतर सामाजिकता के दावे और मुनाफे की पेचीदगियों को समझने की जरुरतें
महसूस नहीं की गई. यह एक तरह से विश्लेषण का उदासीन क्षेत्र बनकर रह गया.
पूंजीवादी माध्यम मानने के बावजूद अगर इसके काम करने के तरीके पर बात हो पाती(
हिन्दी क्षेत्र में) तो शायद सामाजिकता के दावे और खोखलेपन को हम बेहतर ढंग से समझ
रहे होते. खैर, हुआ यह है कि हमारी इसी चूक के बीच टेलीविजन ने मुनाफे और सरोकार
के बीच एक ऐसी प्रविधि का विकास किया है जिसमें दोनों काम साथ-साथ चलते हैं.
मुनाफे का काम तो चलता ही है, सरोकार का काम होता दिखाई देता है. ऐसा या तो झटके
में पूंजीवादी माध्यम करार देकर चलता कर देने की वजह से हुआ है या फिर अभी भी
सामाजिक सरोकार की उम्मीद और उसी के तहत विश्लेषित करने की आदत के कारण जिसे कि
जेम्स कर्रन और जीन सीटन ने ब्रिटेन के संदर्भ में मीडिया और टेलीविजन की
आवारागर्दी के रुप में रेखांकित किया है.[3]
टेलीविजन
की इस आवारागर्दी के बीच सामाजिकता कहां और कितना पीछे रह गया, इस पर बहस करना फिर
उस उम्मीद की तरफ लौटना है. लेकिन समय-समय पर इस टेलीविजन पर दुरुस्त होने को लेकर
जो दबाव बनाए गए, उसका नतीजा यह हुआ कि सामाजिक जटिलताओं से अपने को काटते हुए भी
टेलीविजन सरोकार के दावे जोर-शोर से करने लग गया. समाचार चैनलों ने तो यह दावा
शुरु से ही किया और यहां तक कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग को सरकारी भोंपू और जनविरोधी
तक बताया लेकिन करीब बारह साल बाद मनोरंजन चैनल तक ऐसे दावे करने में पीछे नहीं
हैं. यह टेलीविजन के भीतर और उसके प्रभाव से पैदा होनेवाली सामाजिकता के बजाय उस
दबाव और जरुरत को खारिज करने की रणनीति भर है जो बहुत ही चमकीले ढंग से हमारे
सामने है. यह हमें सीरियलों,रियलिटी शो और यहां तक कि गेम शो में समान रुप से
दिखाई देता है. टेलीविजन की नए किस्म की सामाजिकता पर बात करना जरुरी है.
दूसरी तरफ
सामाजिकता के इस नए संस्करण में भाषाई मिजाज न सिर्फ बदला है बल्कि यह सवाल
गंभीरता से उठने लगा है कि क्या वाकई टेलीविजन को भाषा की जरुरत है. वह भाषा जिसके
जरिए हम अर्थ का संप्रेषण भर नहीं कर रहे होते हैं बल्कि यथार्थ को रेखांकित भी कर
रहे होते हैं. आप इसे लिखित या मौखिक भाषा के संदर्भ में देख सकते हैं. मेरी अपनी
समझ है कि टेलीविजन को भाषा के जरिए अगर यह काम करना होता तो उसकी भाषा दूसरे
माध्यमों से कहीं ज्यादा संवेदनशील होती लेकिन प्रयोग में इस भाषा को या तो
दरकिनार कर दिया गया है और उसकी जगह कई दूसरे किस्म की भाषा ( जिसकी चर्चा हम
ग्राफिक्स और विजुअल्स के जरिए करेंगे) ईजाद कर ली गई है, जिसने अपने तर्क विकसित
किए हैं या फिर भाषा का यह रूप विज्ञापन के आसपास बैठता है. अकादमिक,व्याकरणिक और
यहां तक कि स्वयं टेलीविजन की भाषा शर्तों के लिहाज से भाषा का यह संयोजन अराजक और
उपद्रवी है लेकिन मुनाफे की दुनिया की असली भाषा यही है..टेलीविजन की सामाजिकता
इसके बीच से होकर गुजरती है..
संदर्भः मंडी में मीडिया, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक
बीज शब्द- कार्पोरेट मीडिया, टेलीविजन, भाषाई प्रयोग, टेलीविजन सामग्री, मीडिया उद्योग के तर्क, सामाजिकता की शक्ल, मुनाफा बनाम सरोकार, सहज संप्रेषण, स्क्रीन भाषा, मार्केटिंग स्ट्रैटजी, फिक्की-केपीएमज रिपोर्ट, मीडिया की आचार संहिता, सेल्फ रेगुलेशन..
(विनीत कुमार द्वारा लिखी किताब 'मंडी में मीडिया' हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.)
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