युवा शोध समवाय की पहली कड़ी के रूप में 'दिल्ली की दीवार' : समकालीन सिनेमाई उदाहरणों के माध्यम से आभासी दायरों की तलाश विषय पर मिहिर पंड्या ने अपना पर्चा पढ़ा। अध्यक्ष के पद पर संजीव कुमार और अन्य श्रोताओं के रूप में उपस्थित शोधार्थियों के समक्ष मिहिर ने अपने पर्चे की शुरुआत दो पुस्तकों के संदर्भों को केंद्र में रखते हुए की। पहली पुस्तक थी राहुल पंडित की हाल ही में प्रकाशित 'हैलो बस्तर' और दूसरी थी सुनील खिलनानी की 'भारतनामा'।
हिंसा और खौफ़ की शहरी परिदृश्य पर स्थापना -मिहिर पंड्या
हालाँकि मिहिर के पर्चे पर भारतनामा और शहरनामा का प्रभाव है लेकिन तब भी मिहिर सिर्फ प्रभावित नहीं होते बल्कि उनके संदर्भों को अपने विषय के अनुकूल बना उसमें संशोधन भी करते चलते हैं। शहर के संदर्भ में कहे गये सुनील खिलनानी के कथन -"शहर भारतीय लोकतंत्र के नाटकीय दृश्यों में बदल गये हैं।" को मिहिर थोड़ा संशोधित करते हैं और कहते हैं कि 'शहर भारतीय लोकतंत्र के उस नाटकीय रणक्षेत्रों में बदल गए हैं जहाँ आप समाज में निरंतर गहरी होती हिस्सेदारी की लड़ाइयों के अक्स देख सकते है।' यह संशोधित कथन मिहिर के पर्चें की बुनियाद है। जहाँ से वे अपने पर्चें को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते हुए 'तेज़ाब' और परिंदा' के संदर्भो का इस्तेमाल शहर में हिंसा और भय के एकाएक अवतरण को विश्लेषित करने के लिए करते हैं। जिसके मध्य में नब्बे के दशक की उथल-पुथल भरी राजनीति (मंडल-कमंडल की राजनीति) भी सिनेमा को प्रभावित कर रही थी। मिहिर का पर्चा ९० के दशक की मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर के सिनेमा में कैसे एकाएक शहरी परिदृश्य पर हिंसा और ख़ौफ़ की स्थापना होती है, को न सिर्फ दिखाता है बल्कि यह विश्लेषित करने का प्रयास करता है कि यही वह समय है जब 'क्षेत्रीय अस्मिताएँ राष्ट्रीय परिदृश्य पर हावी होने लगती हैं।' इन्हीं संदर्भों में वे 'तेज़ाब' और 'परिंदा' जैसी फिल्मों के उदाहरण के माध्यम से दर्शाते हैं कि यही वह समय भी है जब शहरी परिदृश्य भय और हिंसा से आक्रांत है। 'तेज़ाब' का महेश देशमुख कैसे मुन्ना में परिणत हो एक 'आदर्श सार्वभौम नागरिक' की पहचान खोकर समाज के हाशिये पर चला जाता है और निश्चित ही इसमें महेश देशमुख नहीं, बल्कि भय और हिंसा की वे परिस्थितियाँ और माहौल जिम्मेदार है जो एक ज़िम्मेदार और शिक्षित युवा(जिसका सपना देश की सेवा करना था और जिसे इसका पाठ उसके माता पिता पढ़ा रहे थे) एकाएक तड़ीपार मुजरिम बना देते हैं। इस ख़ौफ़ की एक झलक वे बिल्कुल ताज़ी फिल्म 'एजेंट विनोद' में भी देखते हैं उनका कहना है कि इस फिल्म का 'पूरा क्लाईमैक्स एक परमाणु बम के खौफ़ के इर्द-गिर्द बुना गया है. यहाँ भय की स्थापना का चरम वह दृश्य है जब पता चलता है कि दिल्ली शहर की सड़कों पर कोई आदमी परमाणु बम लेकर घूम रहा है. ऑटो-टूरिस्ट बस और मोटरसाईकिल से होता हुआ यह आतंकवादी कनॉट प्लेस के निरूलास में यह बम लेकर पहुँच जाता है।'
सत्ता खौफ़ की स्थापना के ज़रिये वे सब सहूलियतें हासिल करती है जिसकी उसे ज़रूरत है। - मिहिर पंड्या

इन आभासी दायरों की तलाश करने के क्रम में मिहिर सौ साल पुराने उस उत्सवगान और राष्ट्रमंडल के लिए सजाई गयी या कहें वास्तविकता को छिपाई गयी दिल्ली की हाल ही की उत्सवधर्मिता में एक साम्य देखते हैं। उनका कहना है कि -
"राजधानी दिल्ली. दिल्ली के संदर्भ में यह ’आभासी दीवारें’ कई बार इतनी हावी हो जाती हैं कि यह असल भौतिक दीवारों का रूप अख़्तियार कर लेती हैं. क्या यह जानना मज़ेदार नहीं है कि सिपहसालार सुरेश कलमाडी की सरपरस्ती में एक महान खेल आयोजन की तैयारी करती वर्तमान दिल्ली और तत्कालीन वायसरॉय लार्ड हार्डिंग की सरपरस्ती में एक अभूतपूर्व राजदरबार के लिए कमर कसती सौ साल पुरानी दिल्ली में एक चीज़ समान है और वो है ’अवांछित तत्वों’ की पहचान और उन्हें अदृश्य बनाने की एक निरन्तर चलती योजनाबद्ध परियोजना."
अपने पर्चें में समकालीन सिनेमा में आभासी दायरों की तलाश के साथ साथ मिहिर सिने-चरित्रों की उस आकांशा पर भी उंगली रखते हैं जो दिल्ली या इस जैसे शहरों में हाशिये के इलाकों में रहते हुए उनके जेहन में पैदा होती हैं इस इलाके को छोड़कर किसी पॉश कॉलोनी का हिस्सा बनने की इच्छा भी इन चरित्रों में दिखती है। इन्हें लगता हैं कि पैसा कमा लेने भर से वे इस 'दीवार' को तोड़ सकते हैं और अपर क्लास का हिस्सा बन सकते हैं। 'ओए लक्की, लक्की ओए' फिल्म के माध्यम से मिहिर इस बात को समझाने की कोशिश करते हैं -
'ओये लक्की लक्की ओये’ के लखविंदर सिंह लक्की को भी ऐसा लगता है. शुरुआती दृश्य में आप देखते हैं कि हाशिए की किसी कॉलोनी में रहने वाले लक्की की तमन्ना शहर में मौजूद ’नागर समाज’ का हिस्सा बनने की है. लेकिन फ़िल्म के तीसरे एपीसोड तक तक आते-आते यह साफ़ हो जाता कि पैसा कमा लेने से उस ’नागर समाज’ में प्रवेश की कोई गारंटी नहीं. डॉ. हांडा जिस तरह उसे अपने रेस्टोरेंट और अपनी ज़िन्दगी से निकालते हैं, वह इसे उजागर करने के लिए काफ़ी है.
सिनेमाई उदाहरण के तौर पर वह हिंदी फिल्म 'शौर्य' के संदर्भ का इस्तेमाल करते हुए उसमें दिल्ली की एक कॉलोनी मयूर विहार के पते के जिक्र का विश्लेषण करते हैं और कहते हैं कि -
"यहाँ ’डी 52, मयूर विहार’ सिर्फ़ एक पता नहीं है, यह एक समूची ’नागर सभ्यता’ का प्रतिनिधि है जिसकी सुरक्षा का आश्वासन यह नागर समाज चाहता है. लेकिन इसी तर्क को जब थोड़ा आगे खींचा जाता है तो इसी ’डी 52, मयूर विहार’ की सुरक्षा के आश्वासन के नाम पर शहर के भीतर और शहर के बाहर सीमांतों पर अनगिनत नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन होता है और इसे ’नागर समाज’ का मौन समर्थन प्राप्त होता है. यह ’अवांछित नागरिकों’ का शहर के परिदृश्य से सायास निष्कासन है और इस ’अवांछित वर्ग’ का निर्माण शहर के धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय, आर्थिक हाशिए को जोड़कर होता है."
सिनेमा शहर के साथ क्या कर रहा है? - रविकांत
बहरहाल मिहिर के पर्चे के बाद रविकांत ने अपनी बात रखते हुए कुछ सवाल उठाए जैसे
-
(१) सिनेमा शहरी विधा है यानि शहरों में आकर ही आप फिल्म बना सकते हैं सवाल ये है कि सिनेमा शहर के साथ क्या कर रहा है?
(२) अगर शहर में इतनी विविधता है(बलदेव वंशी द्वारा संपादित पुस्तक के संदर्भ को लेकर उन्होंने यह बात कही) तो क्या सिनेमा इस विविधता को दिखा पाता है?
'अब दिल्ली दूर नहीं' : नेहरू युग का स्वप्न
इन प्रश्नों से इतर वे 'अब दिल्ली दूर नहीं' को अपनी पसंदीदा फिल्म बताते हुए इसके संदर्भ में कहते हैं कि यह फिल्म आपको बताती है कि नेहरू अब वो नेहरू नहीं है जिससे की आप जब चाहे मिल सकते थे वे अब स्वतंत्र भारत के व्यस्त प्रधानमंत्री हैं। 'अब दिल्ली दूर नहीं' के उस हिस्से का भी रविकांत ज़िक्र करते है जहाँ एक अफसर उन बच्चों को कहता है बल्कि धमकी देता है जो उससे बात करने के लिए गाड़ी के आगे पत्थर रख देते हैं कि देखो ये शहर है और नागरिकता की कुछ शर्ते होती और तुम्हें कायदा और अदब सीखना होगा। पुराने ज़माने में जैसे चलता था वैसे नहीं चलेगा। रविकांत इस कथन को नेहरू के पटना यूनिवर्सिटी के छात्रों को दिए गये भाषण से कनैक्ट करते हैं। जहां वे छात्रों से कहते है कि अब तुम जाओ, अब तुम्हें आंदोलन करने की ज़रूरत नहीं है।
अगर हम ये कहेंगे कि सिनेमा राष्ट्र का भौंपू है तो हम यहाँ ये मिस कर जाएंगे कि सिनेमा की कितनी गहरी आलोचना भी यहाँ छिपी हुई है और राष्ट्र किस तरह से नागरिक को बनाने की कोशिश कर रहा है।
'रंग दे बसंती' : इसका क्लाइमैक्स सिनेमा में व्यवस्था की आलोचना भी है।
बहरहाल 'रंग दे बसंती' भी मेरी(रविकांत) पसंदीदा फिल्म हैं सबसे महत्वपूर्ण और अच्छी बात जो मुझे इस फिल्म में लगती है वो है इसका क्लाइमैक्स। यह क्लाइमैक्स सिनेमा में व्यवस्था की आलोचना भी है। जहाँ फिल्म के वे चारो लड़के या नायक ऑल इंडिया रेडियो पर सफाई दे रहे हैं। जो एक सरकारी माध्यम है या सत्ता का प्रतिष्ठान है। वे ये बताते है कि हम सरकारी माध्यम का इस्तेमाल जनता से संपर्क साधने के लिए कर रहे हैं और सीधे जनता से मुख़ातिब हो रहे हैं। जनता द्वार उनकी बात सुन लेने के बावजूद सत्ता के गलियारों में उनकी बात नहीं सुनी जाती। वे राष्ट्र और सत्ता के लिए ख़तरा हो जाते है और हुक्म आता है 'आई डोन्ट वॉन्ट एनी सर्वाइ्व' । कमांडो द्वारा उन्हें भून दिया जाता है और अंत में सीख यही है कि अगर राष्ट्रीय संचार माध्यमों से छेड़छाड़ करोगे तो इसका अंजाम बुरा होगा। शहर इसलिए भी शहर है कि बह मीडियाकृत हैं। शहर भी मीडिया के जरिये ही हमारे समक्ष मौजूद है।
अब देखिए नागरिक बनने की एक शिक्षा आपको राजकपूर की फिल्मों से मिलती है तो एक अलग शिक्षा आमिर खान की फिल्मों से । यही सिनेमा की सफलता भी है सार्थकता भी।
रविकांत ने परिचर्चा के लिए जो आधार निर्मित किया था वो प्रश्न काल में बेहद काम आया हालाँकि ज्यादातर सवाल पर्चें पर केंद्रित नहीं थे लेकिन जो सवाल आए वे सिनेमा में शहर की महत्ता के प्रदर्शन को लेकर नहीं बल्कि शोधार्थियों के मन में सिनेमा को लेकर जो शंकाएँ हैं, उनके मन में सिनेमा की भाषा, उसके स्तर और चरित्रों की बॉडी लैग्वेज के बदलाव के लक्षणों को जानने की जो जिज्ञासा है, ससे संबंधित थे। प्रश्नो की आवृत्ति इतनी अधिक थी कि मिहिर को बार बार टोकना पड़ा। रंजीत, पंकज, नरेंद्र, रूपेश, विरेंद्र, भावना, प्रतिमा, और अदिति आदि श्रोताओं ने मिहिर के सामने अपनी शंकाएं, प्रश्न और टिप्पणिया रखीं।
एक सवाल था कि जिस लोकेलिटी से हम बचते आ रहे हैं वह सिनेमा में आकर हमें आकृष्ट क्यों करती है? और टिप्पणी थी कि अफवाह को लेकर गाँव की पहचान मान लेने का भ्रम है लेकिन दिल्ली ०६ में दिखता है कि यह शहर से भी जुड़ी है।
एक सवाल में हाशिये की पहचानों के संकट की बात की गई जिसका जवाब देते हुए मिहिर ने कहा कि मैं जब हाशिये की पहचानों की बात कर रहा हूँ तो सभी पहचानों की बात उसमे शामिल है चाहें वो आदिवासी हों, दलित हों. स्त्री हो या और तमाम अल्पसंख्यक पहचाने इसमें शामिल है। अपने जवाब के अंत में उन्होंने पर्चे की बात को दोहराया कि पैसा आ जाने से ही आप इस दीवार को नहीं तोड़ सकते है। साथ ही कहा कि इस तरह के संघर्ष शहर में ज्यादा तीव्रतर हो जाते हैं।
एक अन्य सवाल के जवाब में मिहिर ने कहा कि चलो दिल्ली शहर के बीच में खाँचे बनाने की कोशिश कर रही है। दिल्ली ०६ में मुझे लगता हैं कि वह शहर के भीतर दो खाँचे बनाती हैं रामलीला और बंदर इन खाँचों के हिस्से हैं। इस फिल्म मे एक विलोम रचने की कोशिश की गई है अमेरिका से लौटे एक चरित्र के माध्यम से इन सब सामुदायिक संदर्भों और खाँचों को देखने की कोशिश यह फिल्म करती है।
फिल्म अध्ययन के लिए फिल्म एक डाटा है - संजीव कुमार
अंत में संजीव कुमार ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि- फिल्म अध्ययन आम तौर पर मूल्याँकन करने वाला अध्ययन नहीं होता जबकि हम जो हिंदी के शिक्षक और विद्यार्थी है, निर्णय देने लगते हैं। निर्णय देने के लिए हमारे पास रसवाद से लेकर मार्क्सवाद तक का आधार हो सकता है लेकिन हम अंततः मूल्याँकन देते हैं कि रचना अच्छी है कि नहीं। फिल्म अध्ययन दरअसल इस तरह का मूल्याँकन करने के लिए नहीं होता।
फिल्म अध्ययन के लिए फिल्म एक डाटा है चाहे वह मसाला या बाज़ारू फिल्म ही क्यों न हो। यह अच्छा संकेत है कि आप लोगों ने जितने सवाल किये वो फिल्मों के अच्छा-बुरा होने के संदर्भ में न होकर फिल्मों को डाटा के रूप में लेते हुए किए गये थे।
रविकांत ने जब अपनी बातचीत में कहा कि शहर सिर्फ गरियाने के लिए नहीं है। जो बातचीत चल रही थी उसमें मुझे दो दृश्य याद आ रहे थे एक तो 'दिल्ली 06' का वह दृश्य मुझे दिल्ली ०६ की वो लड़की याद आती है जो मैट्रों की सीढ़ियाँ चढते हुए वॉशरूम में घुसती है और उसके बाद उसका भेस बदल जाता है और दूसरी फिल्म है 'पीपली लाइव'। 'पीपली लाइव' का वो आखिरी दृश्य जिसमें गांव से भागकर वो बंदा दिल्ली पहुँचता है और अपनी पहचान गुम करके जीने लगता है। इस शहर के बहुत सारे अंधेरे पक्ष हैं 'दिल्ली की दीवार' जो शीर्षक उदय प्रकाश की कहानी से मिहिर ने चुना है उसमें इन्हीं अंधेरे पक्षों को उद्घाटित किया है। लेकिन इसका एक पक्ष यह भी है कि यह आपको बिरादरी के उन सब तनावों से भी मुक्त करते हैं जो गाँव में आपको बाँध कर रखते हैं यह आपको उस तरह के शिकंजो से मुक्त करता है और वह आज़ादी भी देता है जिसकी व्यक्ति के तौर पर जरुरत महसूस की जाती है। तो आप सब लोगों को बहुत बहुत धन्यवाद की आप सब लोगों ने इसमें शिरकत की,आपने बहुत उत्साह के साथ इसमे भाग लिया और मुझे विश्वास है कि अगर आगे फिल्म जैसा विषय नहीं भी होगा तो आपका यह उत्साह बरक़रार रहेगा।
विनोद कुमार शुक्ल, आलोक राय, प्रेमचंद के तमाम संदर्भों और समकालीन सिनेमा के उदाहरणों को इस्तेमाल करते हुए मिहिर जिन आभासी दायरों की तलाश करने की कोशिश करते हैं वे उसकी प्रक्रिया में है। वे इसके निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं। निष्कर्ष पर न पहुँचना मिहिर की सीमा नहीं है बल्कि खूबी है। प्रक्रिया में रहना उन तमाम फिल्मों के इंतज़ार करने में निहित हैं जो दिल्ली शहर की अलग तस्वीर दिखाने के लिए रिलीज़ होने की फ़िराक़ में हैं। अपने पर्चें में मिहिर विषयानुरूप सिर्फ उदाहरण और संकेत करते हैं शायद इसी वजह से पर्चा कुछ ढीला-ढाला प्रतीत होता है। निश्चित ही इसमें समय सीमा भी ज़िम्मेदार है। लेकिन युवा शोध समवाय-१ में हिस्सा ले रहे रविकांत और बाकि शोधार्थियों ने अपने प्रश्नों और टिप्पणियों से मिहिर के पर्चे को लेकर ही नहीं बल्कि उसके ब्लॉग और अन्य जगह पर लिखे लेखों को इससे जोड़ते हुए सवाल पूछे हैं और संजीव कुमार ने परिचर्चा के समापन में कहा भी कि मिहिर को फिल्म का इन्साइक्लोपीडिया मानकर सवाल पूछे गये है और ये उनकी सफलता का सूचक है।
अंत में औपचारिक धन्यवाद प्रतिमा ने दिया। अमितेश,भावना, तरुण व अन्य यू.टी.ए साथियों ने कार्यक्रम की व्यवस्था संभाली।
इस अवसर पर वाणी प्रकाशन से अरुण माहेश्वरी और अदिति माहेश्वरी पूरे समय परिचर्चा में मौजूद रहे। आशुतोष कुमार, अपूर्वानंद व शोधार्थियों की उपस्थिति ने इस कार्यक्रम में न केवल शिरक़त की बल्कि अपने सुझाव भी दिये।
(प्रस्तुति - तरुण)
(प्रस्तुति - तरुण)
एक प्रशंसनीय पहल .......शामिल होने के बाद बौद्धिक होने का अनुभव हो रहा है .....संवाद को भी बरीयता देने की गुजारिश के साथ शुक्रिया .....
ReplyDeleteयुवा शोध समवाय की पहली गोष्ठी की रिपोर्ट पढ़ कर लालच हो रहा है कि काश मैं भी उसमें मौजूद होता. पर दूर देश में मिली इस रिपोर्ट ने मुझे आश्वस्त किया है कि यह समवाय कुछ ठोस पाने की प्रतिबद्धता लेकर हमारे बीच उतरा है. आयोजकों और अंतःकरण से इससे जुड़े सभी बौद्धिकों को मेरी बधाई और शुभकामनाएँ !
ReplyDelete- मुकेश गर्ग
शुक्रिया सर,
ReplyDeleteशुक्रिया सर, आपने जिस तरह से सराहा। हौसला और मनोबल और बढ़ गया। अगले महीने का पर्चा विनीत कुमार पढ़ेंगे विषय अभी स्पष्ट रूप से नहीं पता लेकिन मीडिया से संबंधित होगा। बाकि सारी सूचना फेसबुक पर अपडेट करता रहूँगा।
ReplyDelete