Tuesday, 3 July 2012

(Abstract) शोध पत्र पाठ - 4

“जनक्षेत्र (पब्लिक स्फियर) का अस्तित्व व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व, समाज के प्रति नागरिकता बोध, लोकविषयों पर संवादधर्मिता तथा ज्ञान-प्रणालियों के वैविध्यीकरण पर निर्भर है।” 
-युरगेन हैबरमास

हैबरमास ने अपनी पुस्तक ‘द स्ट्रक्चरल ट्रांसफार्मेशन ऑफ द पब्लिक स्फियर’ में जनक्षेत्र की अवधारणा की व्यापक चर्चा की है। जनक्षेत्र वह सामाजिक जीवनवृत्त या अवस्थिति है जिसके निर्धारण में सामाजिक सम्प्रेषण की अनिवार्यता, जन विमर्श की प्रकृति तथा नागरिक सहभागिता की संख्या महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह मनुष्य के आंतरिक जीवन (प्राइवेट) और बाहरी तंत्र (पब्लिक) के बीच फैला एक मध्यस्थ क्षेत्र है. हैबरमास ने अपने अध्ययन में सामुदायिकता तथा जनक्षेत्र को दो संदर्भों में समझने की कोशिश की है। इसका एक आयाम अपेक्षाकृत अधिक संचरणशील और विसरणमूलक है इसके अंतर्गत संप्रेषणीयता, सामाजिक अंतःक्रिया, लोक विमर्श व समन्वित क्रिया-कलाप शामिल किए जाते हैं जो वस्तुतः सामाजिक एकता तथा संवाद प्रणाली को जन्म देते हैं। दूसरी ओर स्थैतिक व्यवस्थामूलक आयाम है जो पूरी नौकरशाही व्यवस्था, भौतिक उत्पादन प्रणाली, सरकारी तंत्र को जन्म देता है। हैबरमास ने इस पुस्तक में एक विशिष्ट सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों तथा पूर्व निर्धारित मान्यताओं के आधार पर जनक्षेत्र की अवधारणा के उदय, विकास क्रम और अंतर्विरोधों को प्रदर्शित किया है। हैबरमास अठ्ठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में बुर्जुआ के अभ्युदय को लोकतंत्र के जन्म व विकास के लिए उत्तरदायी मानते हैं। हैबरमास ने 18वीं सदी के इंग्लैंड, फ्रांस एवम् जर्मनी के राजनीतिक जीवन के आधार पर नागरिक समाज एवम लोकक्षेत्र के संबंध में अपनी प्रारंभिक अवधारणा तैयार की है। वे कॉफ़ी हाउस, साहित्यिक एवम् सांस्कृतिक समूहों, राजनीतिक क्लब तथा साहित्यिक पत्रिकाओं को लोकक्षेत्र का उदाहरण मानते है। वस्तुतः ये वह साधन तथा स्थान थे जहाँ सम्प्रेषण और तर्क की व्यवस्थाएं विवेकपूर्ण एवम् निष्पक्ष व्यवहार द्वारा लोकविमर्श को गतिशील करती थीं। विशेषाधिकार और वंशानुगत पहचान की उपेक्षा इसकी प्रमुख विशेषता थी। यह समय लोक-विमर्श, राजनीतिक रूप से सक्रिय व सहभागी बुर्जुआ और उदारवादी लोकतंत्र का काल था। इस काल में लोकतांत्रिक मूल्यों, प्रक्रियाओं, नीतियों और अपेक्षाओं के सन्दर्भ में जनता में खूब चर्चाएं व वाद-विवाद हुए जो आगे औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया, संस्कृति उद्योग और आधुनिक जटिल राज्य के अभ्युदय के परवर्ती युग में नहीं दिखाई देते। इस संदर्भ में थियोडोर एडार्नो और फ्रेंकफर्ट स्कूल के विचारकों के संस्कृति उद्योग संबंधी अध्ययन को देखना भी रोचक होगा. इस पूरी प्रक्रिया में ज्ञान प्रणालियों की एक सक्रिय भूमिका रही। वास्तव में जनक्षेत्र की अवधारणा का यूरोपीय सन्दर्भ हो या भारतीय सन्दर्भ इसके पीछे एक स्पष्ट विचारधारा कार्यरत है। यह विचारधारा अपनी परिधि में राजनीति शक्ति विमर्श तथा ज्ञान विमर्श को समेटे हुए है। ज्ञान और शक्ति के विमर्श से जनक्षेत्र की अवधारणा का सीधा संबंध है। यूरोपीय सन्दर्भ में बुर्जुआ वर्ग की ज्ञान आधारित संरचनाओं ने जनक्षेत्र की अवधारणा को गतिशीलता प्रदान की। जैसे-जैसे बुर्जुआ वर्ग का शक्ति तंत्र विकसित होता गया वैसे-वैसे जनक्षेत्र के लोकतांत्रिक स्वरूप का विघटन होता गया और अंत में ज्ञान और शक्ति के आपसी सहमतिपरक समीकरण ने जनक्षेत्र की अवधारणा को सीमित तथा नियंत्रित कर दिया। फूको के अनुसार ज्ञान एक विशेष तरह की शक्ति संरचना है और शक्ति संरचना एक विशेष तरह का ज्ञान है। ज्ञान और शक्ति दोनों मिलकर अपने समय की एकीकृत संरचना को रचते हैं। वास्तव में एक निश्चित समय में शक्ति तंत्र एक विशेष प्रकार की ज्ञान व्यवस्था को रचता है समाज के विभिन्न लोक विमर्श इसी ज्ञान व्यवस्था पर आधारित होते हैं। शक्तितन्त्र इस ज्ञान व्यवस्था को सार्वभौमिक तथा शाश्वत बनाकर प्रस्तुत करता है जबकि सार्वभौमिक और शाश्वत जैसा वास्तव में कुछ नहीं होता। ज्ञान की कोई निरपेक्ष सत्ता नहीं होती वह हमेशा शक्तितंत्र से जुड़ा रहता है और शक्तितन्त्र उसे विशेष प्रकार से अपने पक्ष में उपयोग करता है और उसे वैधता प्रदान करता है। भारतीय सन्दर्भ में यदि देखें तो विशेषकर उन्नीसवीं शताब्दी के नवजागरणकाल में हिन्दू और मुस्लिम अस्मिता के बीच संघर्ष की प्रक्रिया शक्तितन्त्र और ज्ञान व्यवस्था से प्रभावित थी। हिन्दू और मुस्लिम अस्मिता के सन्दर्भ में वर्चस्व और प्रतिरोध की प्रक्रिया उनके द्वारा निर्धारित समुदाय के शक्तितन्त्र पर आधारित थी जिसका नेतृत्व क्रमशः हिन्दू और मुस्लिम अभिजात वर्ग कर रहा था। दोनों ही वर्गों के मूल कर्ताओं ने अपने-अपने हितों को ज्ञान व्यवस्था के प्रतिमानों का प्रयोग कर सार्वभौमीकृत किया और उसे एक वैधता प्रदान की। वैधता प्रदान करने की प्रक्रिया में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथकीय आख्यानों, इतिहास की एक विशेषीकृत व्याख्या का प्रयोग किया गया और इस प्रकार वह प्रक्रिया शुरू हुई जिसमें जनक्षेत्र के मूलतत्व संवाद के स्थान पर अपने-अपने पक्ष में एकलाप की प्रक्रिया केन्द्र में आ गई। 
इस संगोष्ठी पत्र में जनक्षेत्र तथा उससे सम्बंधित विविध आयामों की सिद्धांतगत समझ और उसके व्यवहारिक पहलुओं की एक रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. इस क्रम में हेबरमास, जावीद आलम, नांसी फ्रेजर, अमर्त्य सेन और एडार्नो के विचारों से भी एक जिरह करने की कोशिश की गयी है. जनक्षेत्र के यूरोपीय और भारतीय प्रतिमानों की संदर्भगत भिन्नता और समरूपता पर भी विश्लेषण किया गया है और अंत में हिन्दी जनक्षेत्र पर भी सीमित चर्चा की गयी है जिसका समयकाल उन्नीसवी सदी का उत्तरार्ध है.

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