किंवदन्तियों के अविश्वसनीय वर्णनों को लक्षित कर उनका सिरे से नकार अध्ययन की कई संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगा देता है, क्योंकि किंवदन्तीगत कथ्यों के उदय और विकास की भी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है जिसका सम्बन्ध युग विशेष की समुदायगत एवं समुदाय विशेष की कालगत आवश्यकताओं से होता है। ऐतिहासिक जरूरतों के दबाव में अतीत का प्रत्येक वर्तमान इन कथ्यों पर एक नई परत चढ़ा जाता है जिसके साक्ष्य हमारे समक्ष किंवदन्तियों में संस्तर-बहुलता के रूप में बचे रह जाते हैं। वर्तमान इतिहास-लेखन हर संभव तरीकों से किंवदन्तीगत वर्णनों में से ऐतिहासिक तथ्यों को निचोड़ लेने तक सीमित रहता है, किन्तु इस प्रकार के एककालिक अध्ययन से उनके वास्तविक अभिप्राय बहुलांशतः ओझल बने रहते हैं क्योंकि इसमें उनके कथ्यों के क्रम-विकास की कहानी अछूती रह जाती है। अतः अध्ययन का केन्द्र यदि किंवदन्तियों में कथ्यों के क्रम-विकास को बनाया जाये तो बहुत संभव है कि उनसे सम्बद्ध समुदायों की ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया के अब तक अनावृत रहे कुछ पहलू प्रकाशित हो उठें और ऐसा भक्ति-आन्दोलन के ऐतिहासिक विकास के संदर्भ में भी संभव है। इस प्रकार मेरी दृष्टि में किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना विशेष से सम्बन्धित किंवदन्तियों का महत्व जितना उनकी ऐतिहासिकता के संदर्भ में है उससे कहीं ज्यादा बाद के समय में उनसे सम्बद्ध समुदायों के ऐतिहासिक विकास के संदर्भ में है। कबीर के विशेष संदर्भ में कहें तो सम्बद्ध किंवदन्तियों में स्वयं कबीर के विषय में जितनी ऐतिहासिकता की संभावना है उससे कहीं अधिक उनसे किसी भी रूप में सरोकार रखने वाले विभिन्न समुदायों की ऐतिहासिक विकास-कथा के वहन की संभावना है। निश्चय ही इस विकास-कथा को समझने का मार्ग किंवदन्तियों में कथ्यों के क्रम-विकास के अध्ययन से होकर गुजरता है जो उनके एककालिक अध्ययन से संभव नहीं है। अर्थात् किंवदन्तियों का अध्ययन एक भिन्न पद्धति की माँग करता है, जिसके अन्तर्गत उन्हें वर्तमान के सापेक्ष ‘तैयार माल’ (finished product) के रूप में देखने के बजाय उनकी निर्मिति-संरचना को लक्षित करने की जरूरत है।
किंवदन्तियों की निर्मिति की संश्लिष्ट संरचना को सुलझाते हुए उनके कथ्यों के क्रम-विकास को ठीक-ठीक रेखांकित करने का यह कार्य सरल नहीं है और ऐसा कबीरदास के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के संदर्भ में भी सत्य है। पहली कठिनाई स्रोतों के संकलन एवं रचना-काल निर्धारण की है जिसके आधार पर अनुमान किया जा सके कि कथ्य विशेष का विकास किस काल-स्तर पर हुआ? इसके अतिरिक्त किंवदन्तियों के ‘क्रिप्टिक और कम्प्रेस्ड लैंग्वेज’ में स्मृति-संचयन की सामुदायिक प्रणाली की गिरहों को खोलना भी आसान नहीं है। दूसरी ओर काल के विभिन्न स्तरों पर सम्बद्ध समुदायों के हित, उनकी आवश्यकताएँ सीधी और सपाट नहीं, बल्कि संश्लिष्ट रही हैं और इसी कारण किंवदन्ती विशेष की निर्मिति-संरचना के भीतर अभिप्रेरणाओं का जटिल पुंज कार्यरत दिखाई पड़ता है। कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में कहा जा सकता है कि आस्था की परम्परा के भीतर परवर्ती काल में कबीर में अलौकिक एवं पंथ-संस्थापक व्यक्तित्व के प्रक्षेप की अभिप्रेरणाएँ क्रियाशील थीं तो दूसरी ओर ऐतिहासिक विकास के दौरान विभिन्न ‘भौतिक सम्बन्धों’ (material relations) के बीच द्वन्द्व भी कथ्यों के उदय और विकास प्रक्रिया में निर्धारक अवयव रहा है।
कबीरदास के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के क्रम-विकास की पड़ताल करते हुए सहज ही दिखाई पड़ता है कि कथ्यों में पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन कबीर-पंथ की स्थापना और उसके आरम्भिक विकास के दौर में उपस्थित होता है और कबीर का जुलाहा जाति से विलगाव प्रतिपादित होता है। फिर आगे संभवतया ‘गलता सम्मेलन’ जैसी परम्पराओं के प्रभाव में वे रामानन्द के आशीर्वाद से ‘बाल-विधवा’ या ‘विधवा-ब्राह्मणी’ की कानीन सन्तान बताये जाने लगते हैं। 1713 ई॰ के गलता सम्मेलन और उसके निर्णयों में भौतिक सम्बन्धों के द्वन्द्व और आस्थापरक अभिप्रायों की संश्लिष्ट भूमिका रही थी। इसके अतिरिक्त कबीर को आस्था का विषय बना चुकी चेतना के लिए उनके अलौकिक स्मरण हेतु अनिवार्य था पौराणिकता का आश्रय ग्रहण करना और प्रतिफल के रूप में वे ‘पुष्कर-पर्ण’ पर अवतरित होते दिखाई देने लगते हैं। इस तरह हम अनुमान कर सकते हैं कि कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों का क्रम-विकास काल के विभिन्न स्तरों पर संश्लिष्ट अभिप्रायों-अभिप्रेणाओं के दबाव में होता होता है। बहरहाल सभी कठिनाइयों से दो-चार होते हुए प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य है उन ऐतिहासिक प्रश्नों की यथासंभव पड़ताल करना जिनके उत्तरस्वरूप विशेषकर कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियाँ अपनी संस्तर-बहुलता प्राप्त करती विकसित होती रही हैं।
किंवदन्तियों की निर्मिति की संश्लिष्ट संरचना को सुलझाते हुए उनके कथ्यों के क्रम-विकास को ठीक-ठीक रेखांकित करने का यह कार्य सरल नहीं है और ऐसा कबीरदास के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के संदर्भ में भी सत्य है। पहली कठिनाई स्रोतों के संकलन एवं रचना-काल निर्धारण की है जिसके आधार पर अनुमान किया जा सके कि कथ्य विशेष का विकास किस काल-स्तर पर हुआ? इसके अतिरिक्त किंवदन्तियों के ‘क्रिप्टिक और कम्प्रेस्ड लैंग्वेज’ में स्मृति-संचयन की सामुदायिक प्रणाली की गिरहों को खोलना भी आसान नहीं है। दूसरी ओर काल के विभिन्न स्तरों पर सम्बद्ध समुदायों के हित, उनकी आवश्यकताएँ सीधी और सपाट नहीं, बल्कि संश्लिष्ट रही हैं और इसी कारण किंवदन्ती विशेष की निर्मिति-संरचना के भीतर अभिप्रेरणाओं का जटिल पुंज कार्यरत दिखाई पड़ता है। कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में कहा जा सकता है कि आस्था की परम्परा के भीतर परवर्ती काल में कबीर में अलौकिक एवं पंथ-संस्थापक व्यक्तित्व के प्रक्षेप की अभिप्रेरणाएँ क्रियाशील थीं तो दूसरी ओर ऐतिहासिक विकास के दौरान विभिन्न ‘भौतिक सम्बन्धों’ (material relations) के बीच द्वन्द्व भी कथ्यों के उदय और विकास प्रक्रिया में निर्धारक अवयव रहा है।
कबीरदास के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों के क्रम-विकास की पड़ताल करते हुए सहज ही दिखाई पड़ता है कि कथ्यों में पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन कबीर-पंथ की स्थापना और उसके आरम्भिक विकास के दौर में उपस्थित होता है और कबीर का जुलाहा जाति से विलगाव प्रतिपादित होता है। फिर आगे संभवतया ‘गलता सम्मेलन’ जैसी परम्पराओं के प्रभाव में वे रामानन्द के आशीर्वाद से ‘बाल-विधवा’ या ‘विधवा-ब्राह्मणी’ की कानीन सन्तान बताये जाने लगते हैं। 1713 ई॰ के गलता सम्मेलन और उसके निर्णयों में भौतिक सम्बन्धों के द्वन्द्व और आस्थापरक अभिप्रायों की संश्लिष्ट भूमिका रही थी। इसके अतिरिक्त कबीर को आस्था का विषय बना चुकी चेतना के लिए उनके अलौकिक स्मरण हेतु अनिवार्य था पौराणिकता का आश्रय ग्रहण करना और प्रतिफल के रूप में वे ‘पुष्कर-पर्ण’ पर अवतरित होते दिखाई देने लगते हैं। इस तरह हम अनुमान कर सकते हैं कि कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियों का क्रम-विकास काल के विभिन्न स्तरों पर संश्लिष्ट अभिप्रायों-अभिप्रेणाओं के दबाव में होता होता है। बहरहाल सभी कठिनाइयों से दो-चार होते हुए प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य है उन ऐतिहासिक प्रश्नों की यथासंभव पड़ताल करना जिनके उत्तरस्वरूप विशेषकर कबीर के जन्म से सम्बन्धित किंवदन्तियाँ अपनी संस्तर-बहुलता प्राप्त करती विकसित होती रही हैं।
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